कभी-कभी मेरे दिल में एक पुराने गाने की कुछ पंक्तियाँ आती हैं— 'पल भर के लिए कोई हमें प्यार करले, झूठा ही सही।' (देखा जाए तो सालों पहले ये गाना बता चुका था टिंडर का आना।) पर कभी-कभी मेरे दिल में यह भी ख़याल आता है, कि क्या यह गायक सचमुच चाहेगा झूठ-मूठ का प्रेम? क्योंकि आख़िर क्या है ये प्रेम? प्रेम वो जल है जो तुम्हारे सूखे गले कि प्यास बुझादे और भिगोकर पूरे दिन की थकान मिटादे, प्रेम वो पवन भी है जो तुम्हारे बदन को छूकर तुम्हारे गिले-शिकवे अपने साथ बहाकर ले जाए, प्रेम वो धरती भी है जिसपर नंगे पाँव चलकर तुम्हे घर जैसा महसूस होता है, प्रेम वो आकाश भी है जिसकी ओर तुम घंटों तक घूरकर उसकी विशालता में नहा सकते हो, और प्रेम वो अग्नि भी है जो तुम्हे जलाये नहीं, बल्कि अपनी गर्माहट में तुम्हारे ह्रदय को समेट ले। जानती हूँ मैं कि 'सच्चा प्यार' कितना घिसा-पिटा लफ़्ज़ है, जानती हूँ मैं कि ये पाया नहीं, बनाया जाता है, जानती हूँ मैं कि इसकी पंचतत्वी सुंदरता तभी मिलती है जब ये दो-तरफ़ा हो— लेकिन नहीं, किशोर दा, नहीं, ये दो-तरफ़ा प्यार अगर झूठा हो तो इसकी बाढ़ में डूबकर तुम मर जाओगे, इसके तूफ़ान में लिपटकर खो जाओगे, ज़िंदा दफ़्न होकर घुट जाओगे, आस्मां से गिरी बिजली का झटका सह ना पाओगे, आग कि लपटों में समाकर राख हो जाओगे— किशोर दा, दो दिन के झूठे इकरार की इतनी कामना न करो, तुम्हारी प्रियतमा तो भूल जायेगी तुम्हें इन दो दिनों के बाद पर तुम्हारी यादों में भटकते हुए रुलाती रहेगी तुम्हें, जलाती रहेगी तुम्हें तुम्हारे खून के तेल से; याद दिलाती रहेगी कि तुम्हें प्यार मिला भी तो भी वो एक नाटक ही था एक फ़िल्म का गाना ही था।
7th April/ (7/30) / Free verse